हर साल की तरह इस साल भी राष्ट्रीय किसान दिवस मनाया जा रहा है, लेकिन कृषि के इस पेशे से अब अन्नदाता का मोहभंग होने लगा है.किसानों के प्रति बेरुखी से कृषि प्रधान देश गम्भीर भारत में ये घाटे का सौदा साबित हो रहा है.विकास के नाम पर सरकारी, राजनीतिज्ञ का कहीं यह वोट का अखाड़ा तो नहीं है। इससे उबरना होगा नहीं तो एक दिन किसान देश के मानचित्र से गायब हो जाएगा तथा अर्थव्यवस्था के नाम पर भारत दुनिया के नक्शे में अपना स्थान ढूंढता रह जाएगा। यह जानना जरूरी हो गया कि ‘किसान है कौन’ और ‘खड़ा कहाँ है’.
किसान देश की अर्थव्यवस्था की रीड की हड्डी है। देश के आधे से अधिक कारोबार उद्योग व बड़े व्यापार किस पर टिके हैं….? जाहिर है यह सब किसानों की मेहनत के दम पर टिके हैं दुनिया के हर मनुष्य के पेट की क्षुधा को कौन शांत करता है….? उत्तर स्पष्ट है “किसान और सिर्फ किसान”। लेकिन उसका हाल यह है कि वह सुविधा न मिलने के श्राप से ग्रस्त है।
भारत में आज भी लगभग 70% लोग आज भी गांव में निवास करते हैं और उनकी आजीविका का मुख्य साधन खेती है। भारत में किसानों की संरचना जाति, नृजातीयता, धर्म, भाषा आदि पर आधारित है। भारत में कृषक वर्ग की संरचना का अध्ययन करते समय तथा भारतीय कृषि की प्रकृति का अध्ययन करते समय विभिन्न प्रकार के कृषक वर्गों का पता लगाने के लिए तीन सिद्धांत तैयार किए थे। तीन सूत्रीय सिद्धांत में जीवन से प्राप्त होने वाली सभी प्रकार की आमदनी शामिल हैं, (जैसे किराया, फसल तथा वेतन )। अधिकारों की प्रकृति (जैसे स्वामित्व तथा किराएदारी, फसल का हिस्सा या कोई अधिकार नहीं) तथा खेत में किया गया काम (कोई काम नहीं करना, आंशिक काम पारिवारिक श्रम द्वारा किया गया काम, वेतन के बदले काम करना आदि)। यह मापदंड भी भारत में कृषि कार्यों से जुड़े लोगों के तीन वर्गों की अलग-अलग पहचान करने में मदद करता है। भारत में इन तीनों वर्गों में जो लोग शामिल हैं, उन्हें भूस्वामी, किसान तथा मजदूर कहा जाता है, भूस्वामी खेती की जमीन के मालिक होते हैं – यह संपन्न व अमीर होते हैं। किसान उन्हें कहते हैं जो खेतों में स्वयं काम करते हैं। वे या तो अपनी जमीनों के मालिक होते हैं या अन्य भूस्वामीयों के खेतों को किराए पर लेकर उन पर खेती करते हैं। इन किसानों को भी दो श्रेणियां में बांटा जा सकता है – छोटे भूस्वामी, तथा जीवन-निर्वाह करने के लिए दूसरों के खेत किराए पर लेकर उनमें फसलें उगाने वाले किसान। कृषि पर निर्भर तीसरा वर्ग जो मजदूर कहलाता है, उसे भी तीन उपविभागों मैं बांटा जा सकता है – कुल कम जमीन वाले गरीब किसान, बटाई पर खेती करने वाले भूमिहीन मजदूर। भू-स्वामियों की आय का मुख्य स्रोत उनकी जमीन पर उनके मालिकाना हक था। बड़े भूस्वामी जमीदार कहलाते थे। वह अपनी कृषि भूमि को ऊंचे किराए पर फसल उगाने वाले किसानों को देते थे। उन्हें जमीन किराए पर उठाने के बदले मोटी रकम मिल जाती थी, फिर भी वे मजदूरों की पगार में कटौती करते रहते थे। बड़े-भूस्वामी में कृषि संबंधी कोई काम नहीं करते थे। वह अच्छी पैदावार के लिए भूमि प्रबंधन का दायित्व भी अपने हाथों नहीं रखते थे। दूसरी श्रेणी के भू-स्वामी भी बड़ी जमीनों के मालिक थे। उनकी जमीनें उनके निवास स्थान के निकटवर्ती क्षेत्र में होती थी। ये भी संपन्न होते थे और खेतों में स्वयं काम नहीं करते थे। यह मजदूर से खेतों में काम करवाते थे और स्वयं उनके कामों का निरीक्षण करते थे। मजदूर ही खेतों में काम करते थे और भूमि प्रबंधन करते थे या तो जमीनों पर उनके अधिकार पारंपरिक होते थे या उनके अपनी जमीनों के अधिकारियों पर वैधानिक अधिकार भी होते थे। परंतु वे मालिकों के बराबरी के नहीं होते थे। किसने की अन्य श्रेणियां में छोटे भू-स्वामी होते हैं जो स्वयं अपने खेतों में काम करते हैं। वे केवल फसल काटने के लिए मजदूरों को काम पर लगाते हैं, अन्य सारे काम स्वयं करते हैं। दूसरी और वे किसान होते हैं जो बहुत सारी जमीनें किराए पर ले लेते हैं और इन खेतों में काम करके फसलें उगाने के इनके अधिकार सुरक्षित रखते हैं। किसानों की तीसरी श्रेणी में वे मजदूर आते हैं जो दूसरों के खेतों में काम करके गुजारा करते हैं। वे कुछ जमीन फसल उगाने के लिए भू-स्वामियों से ले लेते हैं और उसमें होने वाली पैदावार से अपने परिवारों का जीवन- निर्वाह करते हैं। उनके जमीनों पर काम करने के अधिकार अस्थाई होते हैं। वे इसके बदले मजदूरी प्राप्त करते हैं और यह मजदूरी भूमि की पैदावार से ही प्राप्त करते हैं। अत: वे उतना ही पैदा करते हैं जितने में उनकी मजदूरी निकल जाए। दूसरी उप श्रेणी में फसलों में साझेदारी आती है। वे खेतों में दूसरों के लिए काम करते हैं और फसल में हिस्सा लेते हैं। अंतिम उप श्रेणी में भूमिहीन मजदूर आते हैं। अब मजदूरी पर दूसरे के खेतों में काम करते हैं और मजदूरी के रूप में जो भी उन्हें प्राप्त होता है उसे अपने परिवारों का पालन-पोषण करते हैं।
किसानों की राजनैतिक अर्थव्यवस्था; प्रायः बाहरी संगठनों द्वारा किसानों का राजनैतिक शोषण होता है। इसके लिए किसानों की राजनैतिक अर्थव्यवस्था जिम्मेदार होती है। यहां व्यापक रूप से बाजार मूलक अर्थव्यवस्था का विस्तार हो जाता है वहां उनकी संभावना अधिक बढ़ जाती है। बाजार की राजनीति द्वारा किसानों के शोषण की प्रवृत्ति बढ़ रही है। ऐसे शोषण तथा बाजार की राजनीति के सामने घुटन टेकने की व्यवस्था से बचने के लिए यह आवश्यक है कि किसान जागरूक हो और अपने हितों की सुरक्षा के लिए संघर्ष करें न कि बाहरी दबावों के आगे समर्पण कर दें। इसलिए किसान बाजारों के साथ लंबे समय तक चलने वाले आर्थिक सौदे नहीं करते अथवा यह कहें कि वे बाजारों की विचारधारा उसको पूरी तरह स्वीकार नहीं करते। उनके उत्पादन के केंद्र में अपने जीवन निर्वाह और आजीविका चलाना प्रमुख रूप से मौजूद रहता है। कृषक समाजों में नेता स्वार्थी प्रवृत्ति के होते हैं और वह अपने निहित स्वार्थ के लिए कृषक अर्थव्यवस्था में राजनीतिक मामले शामिल कर देते हैं। आमतौर पर किसानों की राजनीतिक प्रकृति उनके परिवारों में राजनीतिक विभाज्य से तय होती है। यद्यपि ग्रामीण किसान पारिवारिक स्तर पर एकता के सूत्र में मजबूती से बंधे होते हैं। वंशानुगत सामाजिक रचना में किसान समाज के बीच जमींदार तथा संपन्न किसान ऊंचे स्थान पा जाते हैं और वे पूरे कृषक समाज पर अपना प्रभुत्व जमाने के प्रयास करते रहते हैं। गरीब और भूमिहीन किसान उनके प्रभाव से नहीं बच पाते क्योंकि इनमें आपसी एकता का अभाव रहता है। उसकी एक वजह यह भी होती है कि वह अपने निहित स्वार्थ के कारण जमीदार के नियंत्रण में रहते हैं और अपने निहित स्वार्थों के कारण जमीदार उन्हें एक नहीं होने देते। किसान की वंशागुण संरचना में जिन लोगों की केंद्रीय भूमिका होती है वे किसानों की अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने का प्रयास करते हैं और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे किसान आंदोलन का सहारा लेते हैं।
राजनैतिक अर्थव्यवस्था का मत संसाधनों पर नियंत्रण से जुड़ा होता है और संसाधनों पर नियंत्रण के कारण कृषि भूमि के पुनर्वितरण की बात अक्सर उठाई जाती रही है। जब भूमि पर किसानों के अधिकारों की बात होती है तो कृषि भूमि पर मालिकाना हक के संपूर्ण और अंतिम विभाजन की बात अंतिम रूप नहीं ले पाती। भूमि पर किसानों का हक पारंपरिक अधिकारों के आधार पर तय किया जाता है अर्थात पारंपरिक से जो भूस्वामी है उनकी जमीन पर उन्ही का हक रहेगा परंतु जमीन के इस्तेमाल और वैधानिक रूप से भूमि के स्वामित्व को लेकर समूचे किसान समाज में भू-स्वामियों के बीच बात उठती रहती है कि जमीन पर मालिकाना हक केवल उन्हीं का रहना चाहिए जिनका पारंपरिक रूप से है या खेतों में काम करने वाले उन लोगों को भी मिलना चाहिए जो खेती किसानी के सारे काम करते हैं परंतु फिर भी भूमिहीन है। कृषक समाजों में शक्ति आधारित संबंधों बनाम राजनीतिक संगठन कृषक अर्थव्यवस्था को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। फिर भी स्वामित्व चाहे जिस तरह का हो, भूमि तथा शक्ति परस्पर पर निर्भर है अर्थात शक्ति जमीन से प्राप्त होती है तथा जमीन को ताकत में परिवर्तित किया जा सकता है।
शोषण के शिकार केवल किसान ही नहीं है, किसानों का शोषण केवल बड़े भू-स्वामियों द्वारा ही नहीं किया जाता है, अन्य घटक भी हैं जो किसानों का शोषण करते हैं, जैसे बिचौलिया या दलाल जो कृषि उत्पादन की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में बिचौलियों की भूमि निभाते हैं। यह बिचौलिए शक्तिशाली तथा कमजोर वर्ग के बीच में खड़े हो जाते हैं और शक्तिशाली समूह से मिलकर कमजोर किसानों का शोषण करते हैं।
“किसान” और “किसान-वर्ग” और अन्य भाषाओ में उनके संज्ञान में लम्बे और जटिल इतिहास हैं जो आज भी दोनों समाजों में और उन समाजों में उनकी राजनितिक और समाजिक अधीनता में दोनों विशाल उपस्थिति को दर्शाते हैं। किसान अभी भी दुसरे या तीसरे दर्जे के नागरिक हैं। उनकी भोगौलिक गतिशीलता पर कानून और वास्तविक प्रतिबंधों के साथ सामाजिक सेवाओं (स्वास्थय सेवा, शिक्षा, आवास आदि) तक सिमित पहुँच और भूमी एवं श्रम सुरक्षा तक अपर्याप्त पहुँच है.
आजादी के बाद भी स्वतंत्र भारत की सरकारें भी जब किसानों की समस्याओं के सही समाधान तलासने में असमर्थ रहती हैं तो किसान आंदोलन का सहारा लेते हैं।
यह वर्तमान बदलते हुए गावों का बहुत बड़ा सच्च है कि आज के गावं ने सूचना तकनिकी और प्रोधौगिकी क्षेत्र में काफी प्रगति की है पर सवर्ण-अवर्ण और वोटों की राजनिति के कारण वहां एकजुटता की कमी है जो किसानों को एक बद्ध होकर लड़ने से रोकती है। यह गावं की प्रगति के लिए शुभ नहीं हैं।